Thursday, January 22, 2015

मलवे का एक ढेर

       मलवे का एक ढेर
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      उबड़ - खाबड़ को कुचल कर ,
    कहाँ आ गया है -
    बढ़ता हुआ शहर ?
    - आड़ में ,
    - पहाड़ में ।

    मैनें तो कुछ नहीं किया ,
    बैठा ही रहा ,
    मगर फ़ासला कट गया है ।
    कुछ भी तो नहीं कहा ,
    पानी भी नहीं पिया ,
    मगर राह में आया
    - दरिया हट गया है ,

    डट गया है
    कोई कुत्ता
    हड़बड़ा कर सामने ,
    जंगल आ गया है
    दूर से आती हुई
    पहाड़ियों का हाथ थामने ,
    और
    खड़ा है
    कुछ पेड़ों के सहारे ।

    जमीन से लगीं
    जमुहाती झाड़ियाँ
    मारती हैं खिसिया कर
    चिड़ियों के ढेले ,
    पगडंडियों को पकड़ कर 
    चल रहे हैं खेत 
    और 
    पथरीली चट्टानों ने 
    पीस कर धर दिया है 
    रेत । 

    उकताये  हुए 
    आसमान से कानाफूँसी करते
    सागौन और बरगद 
    इकलसुहा इमली के ठूँठ को 
    चिढ़ाते हैं मुँह 
    कभी - कभी । 

    विवशता में 
    सूखे तालाब की बदनसीबी पर 
    झींकती घास ,
    सिर उठा - उठा कर 
    टोहते धान 
    पटकते हैं पीठ से 
    हवा को । 

    सामाधिस्थ है -
    पत्थर पर 
    उभरा संसार 
    अपनी नियति के 
    दुर्वह शव को उठाये ,
                
    अर्थहीन इयत्ता के 
    अप्रिय प्रश्नों की खरौंच ,
    दो टूक उत्तर के लिए 
    बार - बार आवाज़ लगाता 
    सोच ,
    समय से हारा 
    जिंदगी का यह बिखरा खण्डहर ,
    समेटे है -
    टूटन - घुटन - उत्पीड़न ,
    पत्थरों में लड़खड़ाता है 
    और पत्थरों में 
    घुट - घुट कर मर जाता है । 

    ठण्डाई आकांक्षाओं 
    बुझे संतापों 
    अपाहिज सौंदर्य 
    और कठियाई संवेदनाओं 
    - में से भी कुछ टीसता है । 

    खीझता है बियाबान 
    मनुष्य के अहम् पर ,
    स्वयं पर आये 
    गुमनाम संकटों की सलीब पर टँगा ,

    अपने ही 
    रक्त में रंगा हुआ 
    यह अकेलेपन  का अहसास ,
    - नंगा सो रहा है ,
    वर्तमान की जाँघ पर 
    नपुंसक मलवे का एक ढेर । 

                                                                                                   - श्रीकृष्ण शर्मा 

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( रचनाकाल - 1973 )    , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु ''  /  पृष्ठ - 69, 70, 71













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