Tuesday, May 5, 2015

फूट रहे कुल्ले










       फूट रहे कुल्ले 
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         झूठ नहीं ,
         ठूँठ था यहाँ  पर 
         अब ठूँठ नहीं । 

         फूट रहे कुल्ले 
         ज्यों चन्द्रमा ,
         बीहड़ को फोड़ 
         उग रहा समां ;

         अंधे आतंक से ,
         तू टूट नहीं । 

         मंच के नियामक 
         तो चले गये ,
         बाँबी से बाहर 
         विष - सर्प नये ;

         फन पर रख बूट ,
         अगर मूँठ नहीं । 

                       - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 63












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Monday, May 4, 2015

अँधियारे की अंधी चुनौती










   अँधियारे की अंधी चुनौती 
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    अँधियारा ,
    अँधियारा , अँधियारा है ,
    इस तम में 
    हर कोई बेचारा है । 

    घर से कैसे 
    कोई बाहर निकले ?
    अंधड़ में बुझे 
    सभी दीपक उजले ;

    है बनी हर तरफ 
    खुद - व - खुद कारा है । 

    सन्ध्या के संग 
    चहल - पहल थम गयी ,
    किरणों की पगडंडी एक 
    गुम गयी ;

    फिर भी 
    कुछ कहते हैं भिनसारा है । 

    कोई तो 
    आगे आ ललकारेगा ,
    अंधी चुनौती को 
    स्वीकारेगा ;

    हाथों धरेगा 
    जो अंगारा है । 

                           - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 61












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कौन बँटायेगा चिन्ता










   कौन बँटायेगा चिन्ता 
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    एक ही दिशा अपनी 
    उसमें भी अंधकार ,
    घबराकर एक हुए 
    घर , पौली और द्वार । 

    तय था यह पहले ही 
    अँधियारा होना है ,
    सूरज के अस्थि - खण्ड 
    सारी रात ढोना है ;

    फिर किस उजाले का ,
    मन को है इंतज़ार ?

    कौन बँटायेगा चिन्ता ?
    सिर्फ़ है अकेलापन ,
    दूर तलक फैला है 
    मरुथल - सा गूँगापन ;

    सिर्फ़ याद पसरी है ,
    आँगन में तन उधार 

                      - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 60












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Saturday, May 2, 2015

हुए अपरिचित हम










हुए अपरिचित हम 
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इस सन्ध्या के तम में 
हुए अपरिचित हम । 
अपने लिए निरर्थक ,
अपने ही उपक्रम । 

तर्क खड़े हैं तनकर ,
बहसें आग लिए ,
छूँछे शब्द गरजते 
होठों झाग लिये ;

दुर्गन्धित बातों से ,
प्रदूषिता सरगम । 

रिश्तों की गरमाहट 
महज़ दिखावा है ,
फूल - हँसी मौसम का 
सिर्फ़ छलावा है ;

अहसासों पर भारी ,
स्वार्थ और दिरहम *
( * दिरहम : संयुक्त अरब अमीरात की मुद्रा )

                              - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 59






Friday, May 1, 2015

अवशता










अवशता 
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( ओम प्रभाकर के एक गीत की शीर्ष पंक्तियों से प्रेरित )

क्या करें ,
कहाँ जायें ?

सूरज तो चला गया 
संध्या के संग ,
किसका अब साथ करें ?
दृष्टि यहाँ बैठी 
निस्संग ;

आँखों पर 
अँधियारा कब तक उठायें ?

अनपेक्षित ध्वनियों का 
क्या है अस्तित्व ?
आदमी प्रसुप्त 
… और... 
मृत है अपनत्व ;

ऐसे में 
आस्था को कब तक जगायें ?

                    - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 58









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